किसे न होगी लज़ीज़ खाने की लालच ?
हर दिन नवाबी बिर्यानी कौन नहीं चाहेगा ?
मन पसंद पकवान से भरा हो प्लेट ,
तो किसका दिल ना ललचाएगा?
ताबेदार है हर भूक किसी कमाई का,
हर फटी हुई हथेलियां किसी निज़ाम के सियासत मे घुलाम है |
चल पड़ें है हर रोज़ दो वक़्त की भूक मिटाने,
लेकिन भुकमरी पीछा नहीं छोड़ती |
ख़्वाबों के बोझ ने पीठ झुका दी,
लेकिन हमारे मंसूबें रुकने नहीं देती |
लाख कोशिश करता हूँ लेकिन महीने के एक रोज़ ही बिर्यानी नसीब में आती है,
सुबह से रात काली हो जाती है और आँखों में धुल की काजल बन जाती है |
जब तक हाथ मुँह धोकर अपनी भूक मिटाने बैठता हूँ ,
तो दाल - चावल परोसा रहता है |
हर निवाले में उन् सारे लज़ीज़ ख़्वाहिशों की महक आती है ,
दाल के तड़के में अधूरे सपनो की झोंक पढ़ जाती है |
उँगलियां चाट जाता हूँ , ये सोचकर की कब ये दावत मिले न मिले |
भर पेठ डकार मार लेता हूँ, की कब ये जद - औ - जहद के वक़्त मिले न मिले ||
नीदों में सपने कम ,हक़ीकत ज़्यादा नज़र आती है,
आंक मलु तो गुज़रे ज़माने की झलकियाँ दिख जाती है|
जब जेब भर अवारागर्दी होती और सस्ती चाइनीज़ पर शाम के वादे किये थे,
उन् वादों की सौगात है जो अब शाम नहीं मिलती,
और ढूंढ़ने उसे में रात बैच आता हूँ , की कभी तो मेरे वादों का हिस्सेदार इत्तिफ़ाक से मिले ||
महीने का वो एक रोज़ जब बिर्यानी मंगवाता हूँ,
आँख से कुछ बुँदे बासमती में यूँही घुल जाती है |
तो दिल भरने तक रो लेता हूँ, इस नमकीन स्वाद में बीते हुए अफ़साने मिले ||
और बाकी रोज़, वही दाल - चावल परोसा रहता है ||
Very well articulated
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