Sunday, May 10, 2020

ताश का घर

तख़्त है ये तानाशाही की,
जिसकी हुकूमत बनी है ताबेदारों पर ।
जो सियासत आवाम ने थी चुनी,
सल्तनत है वो तकब्बुर की ।

तख़्त है ये तानाशाही की,
जिसका कर अदा किया है कोड़ो से ।
जो बुनियाद मज़दूरों ने थी बनाई ,
किला है वो अब शाशको की ।

किला है वो शान - औ - शौकत की,
जिसका ख़ज़ान भरा है फ़तेह से ।
जिस फ़तेह के लिए मिटटी को लाल किया,
रंग है वो अब शराब की ।

नशा है दौलत और रुतबे की,
जिसमे कोठे सजी है  तवायफ की पायल पर,
जिसे गिरोह के कायदे ने शर्मसार किया,
कायदे है वो ताश की ।

खेल है सत्ते और इक्के की,
जिसमे ग़ुलाम भी बिकाऊ हुआ।
बिकते है पत्ते बादशाह के इशारे पर,
बाज़ी है वो ताश की ।

तबाही है उस तख़्त की ,
जिसके किले बर्बाद हुए वक़्त की वार से ।
जो जीता था तरकीब से वो ढेर हुआ,
जैसे घर हो वो ताश की ।

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