Monday, September 16, 2019

बीज से कब्र तक

आख़िर पहुँच ही गया में, अंत तक | ऐसा लग रहा है की आखरी पढ़ाव आ चुका है | वैसे भी, मालूम पढ़ जाता है की कब तुम्हें उलटी गिनती शुरू कर देनी चाहिए | चाहिए इसलिए क्यूंकि इंसान को हिसाब मिल जाता है बचे हुए वक़्त का, जिसमें अपनी कबर तैयार कर सके | मज़े की बात ये है की हिसाब-किताब ज़िंदगी भर चलता रहता है , बस हम बेखबर रहते है |

मेरी कुछ ज़मीन है जिस से अनाज उगाता था | ज़मीन का दायरा कभी नापा नहीं , लेकिन दलीलों  के मुताबिक कुछ दो गज़ की है, ये ज़मीन |  ये दलील भी क्या अजीब चीज़ है; कागज़ के पन्ने पर लीख दिया की इतना तुम्हारा हिस्सा है, इतना उसका दाम | कोई सर्कार, जिसकी बुनियाद ही बनी हुई है लोगों के विष्वास पर, वो तये कर गया मेरी ज़मीन का दाम,  जिसका भरोसा एक कागज़ का पन्ना देगा | मैंने क्या बोया, किस तरह अनाज उगाया, मिट्टी को सींचा, अपना लहू - जिगर देकर दुनियाँ की भूक मिटाई, उसका हिसाब एक दलील कर गया, कानून की मोहर लगाकर | ऐसा कानून जो सहूलियत के साथ बदलता है, उसमें क़ुदरत की कोई जगह नहीं |

खैर, इस पर तर्क करने बैठे तो जो सांसे बची है वो बिन मादी खर्च होजाएगी |
बिस साल का था जब अब्बा जान ने हल पकड़ाया था हातों में, और बैल के पीछे दौड़ाया था | मोती और नंदी नाम है दोनों के | इस हद तक शरारती है की खुला छोड़ दो तो दूसरे के खेतो में हलचल मचा दे| लेकिन वफादारी में इनका कोई जवाब नहीं | जैसे जैसे मेरी उम्र ढली है, वैसे ही, इन्होने मेरा खेत संभाला है | इस हद तक की कभी में सिंचाई भूल जाऊं, मगर ये नहीं |

पर ज़मीन के बटवारे ने इनकी अफ़रातफ़री को ख़त्म कर दिया | लेकिन करता भी क्या मैं | दो बेटो के लिए अपने मोती और नंदी को छोड़ना पढ़ा | बेटो की पढाई से लेकर शादी तक का खर्चा सिर्फ फसल की कमाई, भरपाई नहीं कर पाती | उसके लिए , इस दलील से साबित की हुई हक़ को , बाज़ारू दाम पे तोला गया | बड़ी खूबसूरती से एक नयी दलील बना दी गयी, जिसके मुताबिक, ये ज़मीन खेत रही नहीं, कारोबारी असासा कहलाया गया | उस पर फिर तुम चाहे जिस तरह, देश का विकास ऊगा सकते हो |

मुझे कोई परवाह नहीं, या फिर यूँ कहूं, कोई इल्म नहीं की मेरी ज़मीन का क्या हुआ | बेचना था , सो बिक गयी सरकार के नाम | क्योंकि मुझे पता है की मैंने अपनी मेहनत और कुर्बानी दोनों, देश के विकास में लगा दी | अब इससे ज़्यादा क्या देशभक्त बनेगा कोई, और कैसे | कुछ लोग हैं वहाँ सियासत में , जो भाषण लगाकर, लोगों में वतन प्रेम की भावना का बीज बोते है | मेरा तो सीधा हिसाब है - अपने से ज़्यादा सोचोगे, तो दो-चार लोगों का भला हो ही जाता है | देश का भला आखिर कौन एक उम्र में कर पता है |

लेकिन आखिर में सब खुद तक आता है | तब रिश्ते , दुनिया , ज़िम्मेदारी, दोस्ती - यारी कुछ भी मतलब का नहीं रहता | और, अब मेरी भी शाम तब्दील हो चुकी है | कल की सुबह की धुप से मेरी नीद न टूटे, इसका इंतज़ाम मैंने कर लिया है | ज़मीन का छोटा सा टुकड़ा बचा के रखा था, जहां पर चैन से में दफन हो सकूँ | जब मुट्ठी भर मिटटी बरसेगी , तब शायद एहसास होगा की कैसा लगता है बीज को दफनाना | एक बीज की तरह, मैं भी निहाल होकर खिलूँगा | दुआ करता हूँ की बस, कोई किसान मेरी सिंचाई करदे |
तब तक के लिए अलविदा |

1 comment:

  1. Beautiful. Probably one of your best works.

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